12बजे वाली वो चाय और सुबह 8 बजे की मेट्रो
यूँ तो कहने को महीना भर ना हुआ था हमें मिले
पर एक अनकहे अनूठे ढंग से उसने मेरी आदतों को अपनी शख्सियत में उतार लिया था
आधी थकी रातों में उसकी भारी पलकों की आँखों से
मुठभेड़
के बस 1बजे तक उसकी बात मान लें
के बस कुछ और देर जाग लें
थकान भरे दिन के बाद घंटों सेंट्रल पार्क के चक्कर काटना
सिर्फ इसलिए क्योंकि मुझे ठहरना पंसद न था; उसकी एक नई सी आदत बन चुका था
बिस्तर और उसके दर्मियाँ कुछ इस तरह उसकी-मेरी बातें उलझ गई थी
के 12 बजते ही एक कप चाय के साथ
बिस्तर से कुछ दूर मेरी ओर आ जाता है
थकी आँखों की उधेड़बुन फोन की चमचमाती स्कृीन से
नींद को न सिर्फ रात में भगाती
पर सुबह भी बिना किसी अलार्म के ठीक 7 बजे खुल जाती
घड़ी की सुईयों के साथ भागते हुए उसके पैंरों का फिर
ठीक 8 बजे मेट्रो पकड़ना
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