मेट्रो में मिली अनिता आंटी !
मेट्रो और बस में सफर करने में एक भारी अंतर समझ आता है मुझे; बस में जहाँ एक तरफ तुम साथ सफर कर रहे लोगो से बात कर सकते हो, उन्हें ऑब्ज़र्व कर सकते हो साथ ही साथ खिड़की से बाहर झाँक नज़ारें भी देख सकते हो; सड़क के किनारे पेशाब करते आदमी, स्कूटर-ऑटो से थूकते लोग, गाड़ियों के शीशे नीचे कर कचरा फेंकते लोग सब देख सकते हो, उसपे अफ़सोस जता सकते हो l पर मेट्रो में ये सब कहाँ रहता है, इसलिए लोगो के कपडे देख कर, उनकी आधी अधूरी बातें सुन कर, चेहरों पे लगा मेक-अप देख कर और हाँ मेरा पसंदीदा काम, लोगो के जूते ऑब्ज़र्व कर के ही समय बीताना पड़ता है l ऐसे ही एक दिन मेट्रो में सफर करते हुए अनिता आंटी मिली l पहली बार ही मिली थी उनसे पर जिस अपनेपन से मेरे बगल में आ बैठ गयी और दिन भर की अपनी कहानी बताने लगी मानो बचपन से मुझे जानती हो। कहने लगी सुबह से गुरूजी की सेवा में लगी थी पानी का एक गिलास तक नहीं पिया था, जाते जाते बस एक कप चाय पिला दी गुरूजी ने और बचा-कुचा खाना अखबार में लपेट दिया। उन्हीं की कृपा है जो पेट भरा है आज, देर से आते आते कपडे भीग गए बारिश में, पर गुरूजी का हाथ है मेरे सर पे जो मेट्रो वाले भैया ने गीले नोट लेकर टिकट दे दी। मैंने सच बता दिया था के गुरूजी की सेवा में थी बस फिर क्या था मेट्रो वाले ने सारे नोट ले लिए और टिकट दे दी। वैसे तो गुरूजी ने मना किया है मेट्रो में पब्लिसिटी करने से नहीं तो इसी मेट्रो में हर किसी से बात कर सकती हूँ इतनी ताकत दी है गुरूजी ने, जैसे बारिश की बूँद हर किसी को भिगोती हुई जाती है उसी तरह मैं भी हर किसी को गुरूजी के ज्ञान से भिगोती जाऊँगी। जिस उत्साह से अपने दिन के बारे में और कोई गुरूजी के बारे में बता रही थी सब सुन तो मैं रही थी पर रह रह कर मन में सवाल आ रहा था के इस अन्धविश्वास को लेकर ये आंटी और वो सब लोग कहाँ पहुँचेंगे ? उनके गुरूजी की कृपा थी जो हर किसी पे बरसती थी, वो किस्मत का लिखा भी पलट सकते है, आपकी किस्मत में संतान नहीं है तो भी आपकी झोली एक लड़के से भर सकते हैं। इन बातों को सुनते आस पास के लोग और उनके चेहरे पे एक फिंकी सी उम्मीद, के शायद सही में इन गुरूजी के पास कोई चमतकारी शक्ति हो? उनके पास जाने से शायद मेरे घर लक्ष्मि आए, शायद मेरा बेटा इंजिनियर बन जाये, पति की शायद दारू छूट जाये, पिताजी का कैंसर बिना ऑपरेशन ठीक होजाए, बेटी के लिए कम दहेज़ वाला रिश्ता मिल जाये, नौकरी लग जाये या लगी हो तो प्रमोशन मिल जाये और न जाने ऐसे कितने और सवाल और ख्वाइशें जो गुरूजी पूरी कर दे। इस सब के साथ मन में एक आवाज़ और आई कि क्या इन लोगो का इन गुरूजी और ऐसे कई और गुरुजियों पर अन्धविश्वास करना गल्त है? हर कदम पर जब सरकार और उसकी नयी नयी अतरंगी नीतियाँ , सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले लोग, हॉस्पिटल्स, उनमें काम करने वाले डॉक्टर, स्कूल, उन स्कूलों के टीचर्स, देश की ज्यूडिशरी सब एक आम इंसान को निराश और हताश करने के अलावा कुछ नहीं करते तो क्या ऐसे गुरूजी में अन्धविश्वास कर ज़िंदगी से लड़ते रहना क्या गलत है? अगर किसी की इललॉजिकल बात हमे ज़िन्दगी के थप्पेडे खाने की हिम्मत देता है तो ऐसे अन्धविश्वास में विश्वास रखने में हर्ज़ ही क्या है? इसका जवाब मैं जानती हूँ और शायद इस पोस्ट को पढ़ने वाले कई लोग जानते होंगे पर उस जवाब को जब अनिता ऑण्टी के चेहरे की उस उम्मीद और मुस्कुराहट के सामने रखती हूँ तो मन के एक कोने से आवाज़ आती है के एक दिन के लिए मैं भी थोड़ा अन्धविश्वासी हो जाती हूँ शायद ज़िन्दगी से लड़ना आसान लगने लगे।
पर दुसरे ही पल उस अन्धविश्वास के साथ मन में आता है एक अविश्वास का भाव अनिता आंटी के लिए। आज के समय में कोई भी अजनबी जब उम्मीद से ज़्यादा अपनापन दिखता है तो ये शक्की मन कहाँ उसे हज़म कर पाता है ! क्या पता इन चिकनी चुपड़ी बातों से अपना क्या मतलब निकालना चाहती हो ? आखिर मिले हुए कुछ मिंटो से ज़्यादा समय कहाँ हुआ था। इसलिए बातें तो सब ध्यान से सुन रही थी पर साथ ही साथ जेब में रखे अपने फ़ोन, हाथ में पहनी अपनी घड़ी , नाक के कोके और उँगलियों की अँगूठियों को लेकर भी खास होशियार थी। आंटी ने पर्स से जब रूमाल निकाला तो भरी मेट्रो में भी मन थोड़ा घबरा गया, प्लास्टिक का वो लिफ़ाफ़ा जब नोट सूखने के लिए खोल तो मम्मी की बात तुरंत याद आई कि किसी अजनबी से कोई खाने की चीज़ न लेना। वो तो दो मिनट में स्टेशन आगया और लपक के दरवाज़ेइ की तरफ निकल पड़ी, अनिता आंटी को एक कंफ्यूज़ सी बाये बोल कर।और उतरते के साथ फिर अपना फ़ोन , घड़ी , कोका और अंगूठियाँ देखि और कई सारे सवाल, उनके जवाब, अनिता आंटी का अन्धविश्वास , उनके प्रति मेरा अविश्वास लेकर मैं मेट्रो से बहार गयी, ये सोचते हुए के घर जाकर मम्मी से पूछुंगी। और पीछे से अनिता ऑंटी का जवाब सुनाई पड़ा " ख़ुश रहो , तुम्हारी मनोकामना पूरी हो जो ऐसे एक अजनबी की बातें ख़ुशी ख़ुशी सुनती रही"l
पर दुसरे ही पल उस अन्धविश्वास के साथ मन में आता है एक अविश्वास का भाव अनिता आंटी के लिए। आज के समय में कोई भी अजनबी जब उम्मीद से ज़्यादा अपनापन दिखता है तो ये शक्की मन कहाँ उसे हज़म कर पाता है ! क्या पता इन चिकनी चुपड़ी बातों से अपना क्या मतलब निकालना चाहती हो ? आखिर मिले हुए कुछ मिंटो से ज़्यादा समय कहाँ हुआ था। इसलिए बातें तो सब ध्यान से सुन रही थी पर साथ ही साथ जेब में रखे अपने फ़ोन, हाथ में पहनी अपनी घड़ी , नाक के कोके और उँगलियों की अँगूठियों को लेकर भी खास होशियार थी। आंटी ने पर्स से जब रूमाल निकाला तो भरी मेट्रो में भी मन थोड़ा घबरा गया, प्लास्टिक का वो लिफ़ाफ़ा जब नोट सूखने के लिए खोल तो मम्मी की बात तुरंत याद आई कि किसी अजनबी से कोई खाने की चीज़ न लेना। वो तो दो मिनट में स्टेशन आगया और लपक के दरवाज़ेइ की तरफ निकल पड़ी, अनिता आंटी को एक कंफ्यूज़ सी बाये बोल कर।और उतरते के साथ फिर अपना फ़ोन , घड़ी , कोका और अंगूठियाँ देखि और कई सारे सवाल, उनके जवाब, अनिता आंटी का अन्धविश्वास , उनके प्रति मेरा अविश्वास लेकर मैं मेट्रो से बहार गयी, ये सोचते हुए के घर जाकर मम्मी से पूछुंगी। और पीछे से अनिता ऑंटी का जवाब सुनाई पड़ा " ख़ुश रहो , तुम्हारी मनोकामना पूरी हो जो ऐसे एक अजनबी की बातें ख़ुशी ख़ुशी सुनती रही"l
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