कुछ बात करो
दिन के थके हारे
रात के इन आखरी लम्हों में
भारी पलकों के तले
बंद होती आँखों के बीच
काँपते होंठों से
कुछ बात करो
दिन भर के काम से
झुके कंधों के बीच
खिंची हुई बाजू फैलाओ
इक करवट ज़रा सी बदलो
मुझे आगोश में भरते हुए
कुछ बात करो
दिन भर में सडकों की नापा नापी से
एड़ियां जो कुछ सख़्त हैं
पाँव यूँ छिले से हैं
टाँगों के रूखेपन में उलझें
मेरे बालों की गाँठें सुलझाते हुए
कुछ बात करो
कुछ पूछो मुझसे भी
कुछ अपना यूं तुम हाल कहो
काँपते होंठों से
कुछ बात करो
ज़िंदगी इसी भागा-दौड़ी में गुज़र ना जाए
रिश्ता हमारा यूँ उंगलियों से फिसल ना जाए
मुझे आगोश में भरते हुए
कुछ बात करो
और नहीं तो कुछ नहीं
शेख़र के जीवन की कोई बात सुनाओ
मेरे बालों की गाँठें सुलझाते हुए
कुछ बात करो
शिकायतें मेरी कुछ सुनो
दिल का अपना हाल सुनाओ
देखो तुम यूँ चुप ना रहो
बस तुम कुछ बात करो
संयोग ,सम्मिलन तथा मनोभावों के विनिमय के लिए अत्यंत आत्मीय आग्रह का सुंदर चित्रण किया है आपने ।
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