साड़ी की सिलवटें और मेरी डायरी

वो जून की दोपहर में,
खुली खिड़की पे ठहरी वो थकी हवा,
घड़ी की टिक टिक से बेसुद्ध होती छनी धूप,
और यूँ ही हम दोनो का बैठे रहना।

तुम्हारे माथे पे बैठी पसीने की बूंद,
मेरी कमर पे बंधा साड़ी का पल्लू,
और यूँ ही पल्लू से तुम्हारा उस बूंद को पोंछना।

साड़ी की वो सिलवटें
उनसे खेलती तुम्हारी उंगलियां,
और यूँ ही मेरी डायरी में मेरा लिखना।

सिलवटों पे अपने एहसास लिखते तुम,
उन्हें महसूस करती मैं,
और यूँ ही मेरी डायरी में उन एहसासों को उतरना।

साड़ी की परतों में बैठें मेरे जज़्बात,
उसके फॉल में उलझें तुम,
और यूँ ही उन परतों से जज़्बातों तक तुम्हारा आना।

मेरी कमर के मोड़ पे करवट लेती साड़ी,
उस मोड़ पर घर बनाती तुम्हारी नज़रें,
और यूँ ही उन नज़रों की कविता को डायरी में लिखना।

वो जून की दोपहर में,
तुम,
मैं,
साड़ी की सिलवटें और मेरी डायरी।

अप्रैल का ये महीना
जून की दूरी
ना तुम,
ना मैं,
बस एक साड़ी और उसकी सिलवटें
और मेरी खाली डायरी।

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