31 की वो रात

साल की आखिरी रात थोड़ा जल्दी सोने की तरकीब बनाई थी
नये साल के पहले दिन घर माँ जल्दी उठा भी दे तो दीन भर मन में मलाल न रहे रात की मटरगश्ती का

पर वो 31तारीख सारी तरकीब ज्यों की त्यों धरी रह गई
मन इतना उचाट था उस लड़की की बातें याद कर
मानो सब आँखों के सामने यकायक घट रहा हो

इक माचिस की डिब्बी जितना कमरा
दो दर्जन सीढ़ियाँ अँधेरी गुपछुप गली से गुज़रती उस कमरे की ओर जाती
और उन सीढ़ियों से गुज़रकर कनरे तक जाते नौ लोग

मनाने तो सब नया साल गए थे पर सब के मन में क्या घट रहा था इस से शायद वो खुद अनजान थे
कहने को सब दोस्त थे पर उस दिन उनके चहरों पर अजनबी-फन साफ झलक रहा था

यूँ तो कनरे में पाओं रखने भर तक की जगह न थी पर वे सब इक दूसरे से कोसो दूर थे
कुछ अनूठी खुशी में धुत्त थ्
कुछ अनकहे गम में गमगीन
कुछ अपने में ही उलझे थे
और मानो मेले में लापता

उन सब के बीच थी वो लड़की जो सबके होना चाहती थी
पर जुड़ किसी से नहीं पा रही थी

दोस्तों के साथ नया साल मनाने के मन से वो आ तो गई थी पर दोस्तों को खोज वहीं पा रही थी
उस अनजान जगह में वे जाने पहचाने चहरे भी
नये से लग रहे थे
घबराहट में उसका आखिरी दिन गुज़रा
और उसकी बातों को याद कर मेरी रात
31 का उसका वो दिन
और मेरी 31 की वो रात

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  1. आखिरी पंक्ति में ही पूरी कविता उभर कर आयी।

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