भोर का वो समय
दिसंबर की सर्द रातें कुछ ज्यादा लम्बी होती है
सूरज उगने से पहले का अँधेरा कुछ ज्यादा देर ठहरता है
एसी ही भोर बस यूँ ही बाहरी रिंग रोड पे टहलने निकली
खचाखच ट्रैफ़िक से भरी रहने वाली सड़क को जब यूँ खाली देखातो
अजीब सी खुशी हुई
सुकून सा मिला
सड़क के इस छोर से दूसरी तरफ चलते हुए उसकी चौडाई का एहसास हुआ
स्कूटर पर भागते हुए हमेशा सड़क छोटी ही लगी थी
चलते चलते बस स्टाप पहुँची
हरी रंग की 879 सामने आ रूकी
ची... कर के रूकने की आवाज़ से लेकर
खट्टाक से खुले दरवाजे की आवाज़ तक
उस सुबह सब सुनाई दिया
एकदम रूकी बस से एक सर्द झौंका
कुछ यूँ चहरे पे आए बालों से उलझा
के पहले ही जागथी आँखों को फिर जगा दिया
खाली बस चला रहे ड्राईवर की आँखों ने सवाल किया,
"कहीं जाएँगी आप?"
और कदम मन से बिन पूछे यकायक बस पर सवार हो गए
वो खाली सड़क
उस पर एक खाली बस
और उस बस में अकेली मैं
एक पल के लिए भी असुरक्षित महसूस नहीं हुआ
जी चाहा बस कभी न रूके रौशनी कभी न हो
अकेली बस उस रिंग रोड पर दौड़कर मुझे कहीं दूर ले जाए
जहाँ कभी सुबह न हो
न रात का अँधेरा गहराए
बस भोर रहे
बस भोर रहे
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