दोस्ती में हक़ जताना सीखो
जताया था हक़ किसी पर
कुछ साल पहले
कई सालों तक सिर्फ उसपे हक़ था
खुद पर जताये जाने वाले
सारे हक़ उसके हिस्से थे
न जवाब थे न सवाल थे
न शोर न गुल
मीठे से सन्नाटे मे
गहरी साँसे और एक दूजे पे
सारे हक़
आदतें जानी रिवायते जानी
जीने का तरीका और बात
करने का लहजा भी जाना
पसंद नापसंद को समझा
और आदतों में ढाला
सारे हक़ जो थे एक दूजे पे
पर दिनों का क्या था उन
सालों का क्या था
ऐसी करवट बदली वक़्त ने
कि इक दूजे पर जताया गया हक़
इक दूजे का गला घोंटने लगा
सांस आना दूभर कर दिया
बस रिश्ते की उन गिरहों को
खोलना शुरू किया
कुछ दरारें पैदा की
कि कुछ रोशनी आ सके
फिर से साँस आ सके
बस तभी जीने की उस
जद्दोजहद के लिए अपने सारे
हक़ छोड़ दिये
ज़िद्द करके खाना खिलाना
गीले गालों को शर्ट की स्लीव से पोंछना
सब छोड़ दिया
आखिर जीना सबसे ज़रूरी था
साँस आना सबसे ज़रूरी था
इसलिए हक़ जताना छोड़ दिया
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