हाँ ठीक है, तुम हो ही ज़िद्दी!
अरे मैं उस बात पर नहीं हंसी थी!
अरे पर वो बात गलत हैं!
अरे नहीं वो मज़ाक सही नहीं है!
हाँ भई लड़की हूँ तो क्या समझ सकती हूँ बात क्या हैं!
पर मैं तो ऐसी ही हूँ!
पर फिर मैं गलत कैसे हुई?
पर ये मेरी ज़िद्द नहीं हैं!
हाँ ठीक है तुम कहाँ मानोगी ज़िद्दी जो ठहरी।
और ऐसे कई तर्क देकर मैंने कई दफ़ा समझाना चाहा के ज़िद्दी होना मेरी शख़्सियत का एक हिस्सा है और मेरी पूरी शख़्सियत नहीं, पर तुम लोग, तुम्हारी नासमझी कहूँ या तुम्हारी आना या के शायद तुम्हारी ज़िद्द के जिसके चलते तुम मेरे औचित्य को मेरी ज़िद्द समझते रहे और उसी के बहाने मेरे तर्कों, को बातों को नकारते रहे।
पर तुम्हे ये समझना होगा कि,
जब जब मेरी बातों का, मेरे तर्कों को तुमने, तुम सबने या तुम में से कुछ ने मेरी ज़िद्द कहा है, तब तुमने मुझे और मेरी बातों को गलत नहीं बताया , बल्की अपनी अना को मेरे औचित्य से ऊपर रखने की कोशिश की हैं, पर ऐसा मैं होने नहीं दूँगी; ज़िद्दी जो ठहरी।
जब जब हमारे निजी अनुभवों और संभंधो को तुमने उन गंभीर वाद-विवादों का हिस्सा बनाया है , तब तब तुमने मुझे न केवल गलत समझा साथ ही साथ अपनी समझ को मेरे लिए एक शक के दायरे में ला खड़ा किया हैं।
पर तुम्हारी नासमझी के कारण मैं अपनी समझ और अपने विवेक पर प्रशन चिन्ह नहीं लगाऊँगी।
शायद तुम्हें कुछ और समय मिलता तो मुझे बेहतर समझ पाते, या नहीं क्यूँकि बस यूँही गलत समझ लेने का अलग एक मज़ा हो, जहाँ तुम एक इंसान को बार बार और बार बार सिर्फ ज़िद्दी कहते रहो और उसकी हर बात को नकारते रहो करने के साथ सही जताने की नाकामयाब कोशिश करो । नाकामयाब इसलिए क्यूँकि तुम्हारी नासमझी के चलते मैं खुद को गलत नहीं होने दूंगी, ज़िद्दी जो ठहरी ।
तुम्हें ये समझना होगा कि,
मेरी बात को तुम ज़िद्द कह कर जब टाल देते हो तो मेरी उस बात के साथ साथ तुम मेरे अस्तित्व को भी नकारने की कोशिश करते हो, पर ऐसा मैं होने नहीं दूँगी ज़िद्दी जो ठहरी।
कुछ निजी अनुभव ज़रूर रहें हैं हमारे बीच और शायद उन्हीं अनुभवों में मेरा ज़िद्दी होना देखा तुमने, उस समय में जिस लड़की को जानते थे वो मेरे व्यक्तित्व का एक अभिन्न अंग ज़रूर है पर मेरा पूरा व्यक्तित्व नहीं हैं । मेरी वो ज़िद्द सिर्फ उन भावपूर्ण और व्यक्तिगत लम्हों में सामने आती हैं जब मैं कुछ चुनिंदा लोगों के साथ ज़िन्दगी के कुछ हलके फुल्के पल जी रही होती हूँ ।
डोसा न खा कर मैं पिज़्ज़ा खाने की ज़िद्द करती हूँ,
अन्ना ना जा कर मैं पंडित जी जाने की ज़िद्द करती हूँ,
कैंटीन के बाहर क्रिकेट नहीं बैडमिंटन खेलनी की ज़िद्द करती हूँ ।
पर जब किसी सार्वजनिक जगह पर कॉफ़ी पिते हुए या किसी शैक्षिक संस्थान में किसी गंभीर मसले पर मैं अपनी राय रखती हूँ और अपनी राय के लिए लड़ती हूँ तब मैं ज़िद्द नहीं कर रही होती, अपनी बात को रखने और उसके लिए वाद विवाद करने के अपने हक़ का इस्तेमाल करती हूँ पूर्णतः अपने होशो-हवाज़ में होते हुए ।
तुम्हें और उन सब लोगों को जिन्हें मैं एक ज़िद्दी लड़की लगती हूँ, उन्हें ये समझना होगा कि किताबों में लिखें किसी सपाट चरित्र सी नहीं हूँ के एक विशेषण से जोड़ मेरा पूरा चरित्र निर्माण कर लोगे तुम ।
शायद समझो तो उस प्याज़ जैसा समझना जो अपनी हर परत के साथ एक नया रंग दिखाता है ।
उस समुद्र की लहर की तरह समझो जो समुर्द के किनारे एक प्रत्यक्ष रेखा खींच जाती हैं, वैसी ही रेखा मैं भी खींचें रखती हूँ अपने निजी और सामाजिक प्रभाव क्षेत्रों में ।
समझो तो उस तरह जैसी मैं हूँ और न समझों तो गलत नहीं समझो।
और गलत समझो भी तो उसे अपने तक रखो और मुझे, मेरी सोच, मेरी समझ को नकारने की कोशिश मत करो, क्यूँकि ऐसा मैं होने नहीं दूँगी , ज़िद्दी जो ठहरी ।
विशेष सूचना- इस पूरे पोस्ट में मैंने जो खुद को थोड़ा बेहतर समझने समझाने की एक कोशिश की है वो इसलिए ताकि निजी स्तर पर जानने वाले लोग मेरी सामाजिक ज़िंदगी में असहनीय तरीके से हस्तक्षेप न करे पर इस पोस्ट को ये मानने की नासमझी न करे के इसके ज़रिये मैं किसी भी तरह की स्वीकृति या मान्यकरण माँग रही हूँ । मान्यकरण और स्वीकृति की शायद ज़रूरत ही न पड़े अपनी जगह बना ही लूँगी ज़िद्दी जो ठहरी ।
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